जीवन का हासिल

अतिथि कितना भी कहे प्लेट को हाथ नहीं लगाना है, क्योंकि समोसे की उस प्लेट पर प्रथम अधिकार अल्पसंख्यकों अर्थात अतिथियों का होता था, और कहीं हमारे व्यवधान से उनको कम पड़ जाए तो हमारे पिता जी का स्वाभिमान उन्हें ,”लड़के हैं, हो जाता है” कहने की अनुमति नहीं देता था।

बचपन में अतिथि जब घर आते थे तो उसका उत्साह अलग होता था, अतिथि कोई भी हो अब उनके लिए कुछ चाय समोसा तो परोसा ही जायेगा, चाय की हमें चाह नहीं थी और समोसों की आज तक गई नहीं। किन्तु इस नाश्ते की अपनी शर्त थी, अतिथि कितना भी कहे प्लेट को हाथ नहीं लगाना है, क्योंकि समोसे की उस प्लेट पर प्रथम अधिकार अल्पसंख्यकों अर्थात अतिथियों का होता था, और कहीं हमारे व्यवधान से उनको कम पड़ जाए तो हमारे पिता जी का स्वाभिमान उन्हें ,”लड़के हैं, हो जाता है” कहने की अनुमति नहीं देता था। अतः अतिथि के हिस्से के दो और वहां बैठे बड़ों के औपचारिकतानुसार एक की गणनानुसार जब तक अतिथि अपने हिस्से के एक समोसे पर अधिकार जताने से प्रत्याहुत करने सा नहीं दिखता, तब तक घरवालों से, “ठीक है, ले लो” सुनने को नहीं मिलता। पहले थाली में हाथ न डालने का सिद्धांत मात्र अपने घर पर नहीं अपितु किसी और के घर अतिथि बन कर जाते समय भी प्रयोज्य होता था, की जब तक यजमान स्वयं प्रस्ताव ना दें आपको अपनी जीभ लपेट के रखनी है और जब प्रस्तावित हो तो मात्र एक ही समोसा उठाना है।
ये निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के संस्कार थे, समझते सब थे किंतु हर कोई ऐसे दर्शाता था की, “कितना अच्छा बच्चा है आपका, बहुत समझदार”। बच्चे के मन की लालसा किसी से छुपी नहीं है, ये सभी बच्चे रह चुके हैं, इन सभी को इस छद्म आचार संहिता का ज्ञान है किंतु सब उस समोसे की आस में बैठे बच्चे की मानसिकता से सरल बन जाते हैं। इस आचार संहिता के पीछे एक और कारण होता था जो गुप्त नहीं था किन्तु हर किसी को लगता था की उन्होंने बना रखा है, और वो था अभावप्रद जीवन। ऋण लेने के ना साधन होते थे ना परम्परा, एक भूमि का टुकड़ा क्रय कर घर बनाने में दशकों की बचत लगती थी और स्वाभिमान १००% से भी अधिक। तो कोई अपने बच्चे को ऐसा प्रदर्शित नहीं करने देना चाहता था जैसे ये समोसे और मिठाइयां दुर्लभ वस्तुएं हों जो अतिथियों के आने के दिन के अलावा कभी कभार ही खाने को मिलती हो। हर कोई अपने आपको संपन्न और बच्चों को परिपूर्ण दिखा कर ही सम्मान की रक्षा कर रहा होता।

आज की ८० के दशक में जन्मी सूचना प्रौद्योगिकी संगठनों (IT Companies) में कार्यरत पीढ़ी सर्वथा इन्हीं संस्कारों से पल कर आई है, इन सबके माता-पिता ने उनका पालन उक्तलिखित आचार संहिता के और स्वयं के और भी अभावग्रस्त जीवन की कहानियों के साथ किया है। बहुत दुर्लभ होंगे वो लोग जिनके पिता ने सर पर पुस्तकें रख विद्यालय जाते समय नदियां ना पार की हों या उनकी पतलून की लंबाई घुटने से एड़ी तक पहुंचने में भी सालों ना लगे हों। इन सब कहानियों के बीच भी किसी भी माता – पिता ने कभी अपनी आय प्रदत्त निर्वहन की परिधि में कभी अपने बच्चों को कोई कमी होने नहीं दी। किंतु अभाव फिर भी रहे और याद भी रहे, अब आज के आंकिक (digital) युग में जब बच्चों के लिए हर प्रकार के साधन और माता-पिता के लिए धन की व्यवस्था सरल हो गई हो और उसी सरलता से अपने बच्चों को प्रदान कर सकते हों तो कभी कभी हम अपने उसी अभावपूर्ण जीवन की विषाद में यदि अपने बच्चों को विरत करने की चेष्टा करें तो इसे क्या कहेंगे? यह भी तब जब आजकल हमें अपने बच्चों का, दूसरों के या अपने घर उन समोसों पर टूट पड़ना बुरा नहीं लगता, क्योंकि अभावग्रस्त होने की कुंठा नहीं बची।

आज किसी व्हाट्सएप ग्रुप में बच्चों को सर्व सुविधाएं प्रदान करने को ले कर ऐसी चर्चा में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं बस चुप पढ़ रहा था, की कैसे हम अपने बचपन से सीख ले अपने बच्चों को देना चाहते हैं किंतु क्या हम भी अपने माता-पिता जैसी अवस्था में जीवनयापन कर रहे हैं और क्या वो मानक आज के जीवन में भी प्रयोज्य है। इसमें कुछ उचित या अनुचित नहीं है बस विचारणीय है कि ये तुलना किस सीमा तक न्यायोचित है।